Monday 9 March 2020

उस पार:महादेवी वर्मा

उस पार: महादेवी वर्मा

घोर तम छाया चारों ओर, घटायें घिर आईं घन घोर;
वेग मारुत का है प्रतिकूल, हिले जाते हैं पर्वत मूल;
गरजता सागर बारम्बार,कौन पहुँचा देगा उस पार?

तरंगें उठीं पर्वताकार, भयंकर करतीं हाहाकार,
अरे उनके फेनिल उच्छ्वास, तरी का करते हैं उपहास;
हाथ से गयी छूट पतवार,कौन पहुँचा देगा उस पार?

ग्रास करने नौका, स्वच्छ्न्द घूमते फिरते जलचर वॄन्द;
देख कर काला सिन्धु अनन्त हो गया हा साहस का अन्त!
तरंगें हैं उत्ताल अपार,कौन पहुँचा देगा उस पार?

बुझ गया वह नक्षत्र प्रकाश,चमकती जिसमें मेरी आश;
रैन बोली सज कृष्ण दुकूल,विसर्जन करो मनोरथ फूल;
न जाये कोई कर्णाधार,कौन पहुँचा देगा उस पार?

सुना था मैंने इसके पार,बसा है सोने का संसार,
जहाँ के हंसते विहग ललाम,मृत्यु छाया का सुनकर नाम!
धरा का है अनन्त श्रृंगार,कौन पहुँचा देगा उस पार?

जहाँ के निर्झर नीरव गान,सुना करते अमरत्व प्रदान;
सुनाता नभ अनन्त झंकार,बजा देता है सारे तार;
भरा जिसमें असीम सा प्यार,कौन पहुँचा देगा उस पार?

पुष्प में है अनन्त मुस्कान,त्याग का है मारुत में गान;
सभी में है स्वर्गीय विकाश,वही कोमल कमनीय प्रकाश;
दूर कितना है वह संसार! कौन पहुँचा देगा उस पार?

सुनाई किसने पल में आन,कान में मधुमय मोहक तान?
तरी को ले आओ मंझधार,डूब कर हो जाओगे पार;
विसर्जन ही है कर्णाधार,वही पहूँचा देगा उस पार।

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे : सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला


नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे : सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली !
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-
                मली मुख-चुम्बन-रोली ।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली-
                      कली-सी काँटे की तोली ।

मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली-
                          बनी रति की छवि भोली ।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली
                      रही यह एक ठिठोली ।

जुही की कली / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला


जुही की कली / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला
विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी--स्नेह-स्वप्न-मग्न--
अमल-कोमल-तनु तरुणी--जुही की कली,
दृग बन्द किये, शिथिल--पत्रांक में,
वासन्ती निशा थी;
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,
आयी याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आयी याद कान्ता की कमनीय गात,
फिर क्या? पवन
उपवन-सर-सरित गहन -गिरि-कानन
कुञ्ज-लता-पुञ्जों को पार कर
पहुँचा जहाँ उसने की केलि
कली खिली साथ।
सोती थी,
जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह?
नायक ने चूमे कपोल,
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
इस पर भी जागी नहीं,
चूक-क्षमा माँगी नहीं,
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही--
किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये,
कौन कहे?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोंकों की झड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल;
चौंक पड़ी युवती--
चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
हेर प्यारे को सेज-पास,
नम्र मुख हँसी-खिली,
खेल रंग, प्यारे संग