Saturday 12 December 2015

वह बुड्ढा



सुमित्रानंदन पंत

खड़ा द्वार पर, लाठी टेके,वह जीवन का बूढ़ा पंजर,

चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी,हिलते हड्डी के ढाँचे पर।
उभरी ढीली नसें जाल सी,सूखी ठठरी से हैं लिपटीं,
पतझर में ठूँठे तरु से ज्यों,सूनी अमरबेल हो चिपटी।

उसका लंबा डील डौल है,हट्टी कट्टी काठी चौड़ी,
इस खँडहर में बिजली सी,उन्मत्त जवानी होगी दौड़ी!
बैठी छाती की हड्डी अब,झुकी रीढ़ कमटा सी टेढ़ी,
पिचका पेट, गढ़े कंधों पर,फटी बिबाई से हैं एड़ी।

बैठे, टेक धरती पर माथा,वह सलाम करता है झुककर,
उस धरती से पाँव उठा लेने को जी करता है क्षण भर!
घुटनों से मुड़ उसकी लंबी टाँगें जाँघें सटी परस्पर,
झुका बीच में शीश, झुर्रियों का झाँझर मुख निकला बाहर।

हाथ जोड़, चौड़े पंजों की गुँथी अँगुलियों को कर सन्मुख,
मौन त्रस्त चितवन से,कातर वाणी से वह कहता निज दुख।
गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,लुंगी से ढाँपे तन,
 नंगी देह भरी बालों से,वन मानुस सा लगता वह जन।

भूखा है: 
पैसे पा, कुछ गुनमुना,खड़ा हो, जाता वह घर,
पिछले पैरों के बल उठ जैसे कोई चल रहा जानवर!
काली नारकीय छाया निज छोड़ गया वह मेरे भीतर,
पैशाचिक सा कुछ: दुःखों से,मनुज गया शायद उसमें मर!

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