खोलो द्वार
जय शंकर प्रसाद
शीशिर कणों से लदी हुई,कमली के भीगें हैं सब
तार,
चलता है पशिचम का मारुत,ले कर शीतलता का भार ׀
भीगं रहा है रजनी का वह,सुन्दर कोमल कबरी भार,
अरुण किरण सम कर से छुलो, खोलो प्रियतम खोलो
द्वार ׀
धूल लगी है,पद काटों से बिधा हुआ है दुःख अपार,
किसी तरह से भुला भटका आ पहुँचा हूँ तेरे द्वार ׀
डरों न इतना,धूल धूसरित होगा नही तुम्हारा
द्वार,
धो डाले हैं इनको प्रियवर,इन आँखों से आँसू ढार ׀
मेरे धूलि लगे पैरों से,इतना करो न घृणा-प्रकाश,
मेरे ऐसे धूल–कणों से कब,तेरे पद को अवकाश ׀
पैरों ही से लिपटा लिपटा कर लूंगा निज पद निधार
,
अब तो छोड़ नही सकता हूँ,पाकर प्राप्य तुम्हारा
द्वार ׀
सु–प्रभात मेरा भी होवे,इस रजनी का दुःख अपार,
मिट जावे, जो तुमको देख,खोलो प्रियतम खोलो द्वार ׀
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