Saturday 29 September 2012

खोलो द्वार -- जय शंकर प्रसाद


                            खोलो द्वार 

                          जय शंकर प्रसाद

 

शीशिर कणों से लदी हुई,कमली के भीगें हैं सब तार,

चलता है पशिचम का मारुत,ले कर शीतलता का भार ׀

भीगं रहा है रजनी का वह,सुन्दर कोमल कबरी भार,

अरुण किरण सम कर से छुलो, खोलो प्रियतम खोलो द्वार ׀

 

धूल लगी है,पद काटों से बिधा हुआ है दुःख अपार,

किसी तरह से भुला भटका आ पहुँचा हूँ तेरे द्वार ׀

डरों न इतना,धूल धूसरित होगा नही तुम्हारा द्वार,

धो डाले हैं इनको प्रियवर,इन आँखों से आँसू ढार ׀

 

मेरे धूलि लगे पैरों से,इतना करो न घृणा-प्रकाश,

मेरे ऐसे धूलकणों से कब,तेरे पद को अवकाश ׀

पैरों ही से लिपटा लिपटा कर लूंगा निज पद निधार ,

अब तो छोड़ नही सकता हूँ,पाकर प्राप्य तुम्हारा द्वार ׀

 

सुप्रभात मेरा भी होवे,इस रजनी का दुःख अपार,

मिट जावे, जो तुमको देख,खोलो प्रियतम खोलो द्वार ׀

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