रेशमी नगर
: राम धारी सिंह दिनकर
रेशमी कलम
से भाग्य –लिखने वाले, तुम भी आभाव से कभी ग्रस्त हो, रोये हो?
बीमार
किसी बच्चे की दवा जुटाने में, तुम भी क्या घर भर पेट बांध कर सोये हो?
असहाय
किसानो की किस्मत को खेतों में, क्या अनायास जल में बह जाते देखा है?
क्या
खायेंगे ? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?
देखा है
ग्रामो की अनेक रम्भाओ को, जिन की आभा पर धूल अभी तक छाई है?
रेशम
क्या, साडी सही नही चढ़ पाई है.
पर, तुम
नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्य हीनो की मन में लाओगे?
जलता हो
सारा देश, किन्तु हो कर अधीर ,तुम दौड़ दौड़ कर क्यों यह आग बुझाओगे ?
चल रहे
ग्राम कुंजों में पछिया के झकोर, दिल्ली लेकिन ले रही लहर पुरवाई में.
है विकल
देश सारा आभाव के तापो से ,दिल्ली सुख से सोई है नरम रजाई में.
कुटिल
व्यंगय,दीनता, वेदना से अधीर,आशा से जिनका नाम रात दिन जपती है,
दिल्ली के
वे देवता रोज कहते जाते, कुछ और धरो धीरज,किस्मत अब छपती है .
हिल रहा
देश कुत्सा के जिन आघातों से, वे नाद तुम्हे ही नही सुनाई पड़ते हैं ?
निर्माणों
के प्रहरियो, तुम्हे चोरो के, काले चेहरे क्यों नही दिखाई पड़ते हैं?
तो होश
करो दिल्ली के देवों, होश करो, सब दिन तो यह मोहनी न चलने वाली है.
होती जाती
गर्म दिशाओं की साँसे,मिट्टी फिर आग उगलने वाली है.
हो रही
खडी सेनायें फिर काली - काली, मेघो से उभरे हुए नए गजराजो की ,
फिर से नए
गरुण उड़ने को पाँखे तोल रहे ,फिर झपट झेलनी होगी, नूतन बाजो की.
व्रधता भले
बाँध रहे रेशमी घागो से,साबित इनको पर नही जवानी छोड़ेगी,
जिनके आगे
झुक गए सिधियों के स्वामी, उस जादू को कुछ नई आंघिया तोड़ेंगी.
No comments:
Post a Comment