Wednesday 30 October 2013

सर फ़रोशी की तमन्ना -बिस्मिल अज़ीमाबादी




सर फ़रोशी की तमन्ना

बिस्मिल अज़ीमाबादी


रामप्रसाद बिस्मिल ने बिस्मिल अज़ीमाबादी की शायरी फांसी के फंदे पर झूलते गाई थी


सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है

करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है

ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा गैर की महफ़िल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमान,

हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,

आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

है लिये हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर,
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर

खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हाथ जिन में हो जुनूँ कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से

और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हम तो घर से निकले ही थे बाँधकर सर पे कफ़न,
जान हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम

जिन्दगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

यूँ खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज

दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें ना हो खून-ए-जुनून

तूफ़ानों से क्या लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

अन्वेषण-- रामनरेश त्रिपाठी


अन्वेषण
- रामनरेश त्रिपाठी

मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥
          तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था।
          मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥
मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू।
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥
          बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
          आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥
बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥
          मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
          उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥
बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥
          तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं।
          तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में॥
तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था।
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में॥
          क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही।
          तू अंत में हंसा था, महमुद के रुदन में॥
प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना।
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में॥
          आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में।
          मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में।
कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है।
हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में॥
          तू रूप कै किरन में सौंदर्य है सुमन में।
          तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में॥
तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में।
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में॥
          हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू।
          देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में॥
कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में॥
          दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ।
          ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में॥

हे प्रभो आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए -रामनरेश त्रिपाठी


हे प्रभो आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए 

रामनरेश त्रिपाठी


हे प्रभो! आनन्द दाता ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रत-धारी बनें॥
गत हमारी आयु हो प्रभु! लोक के उपकार में
हाथ डालें हम कभी क्यों भूलकर अपकार में

आर्य- मैथली शरण गुप्त


आर्य

मैथली शरण गुप्त

हम कौन थे,
क्या हो गये हैं,
और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर,
यह समस्याएं सभी

भू लोक का गौरव,
प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय,
और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक,
किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है,
वह कौन,
भारतवर्ष है

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है,
इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके,
जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि,
हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के,
आज भी कुछ हैं खड़े

वे आर्य ही थे जो कभी,
अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की,
मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में,
सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से,
द्रवित होते थे सदा

संसार के उपकार हित,
जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से,
बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का,
आलोक सब संसार में जागी यहीं थी,
जग रही जो ज्योति अब संसार में

वे मोह बंधन मुक्त थे,
स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे,
वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से,
वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के,
वे मनोहर मीन थे

Tuesday 29 October 2013

भिक्षुक -सूर्य कान्त त्रिपाठी “निराला”



भिक्षुक
(सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला)
वह आता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता ,
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टीपाने की ओर बढ़ाये
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता भाग्य विधाता से क्या पाते ?
घूँट आँसुओ के पीकर रह जाते
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए

बीती विभावरी जाग री---जयशंकर प्रसाद


बीती विभावरी जाग री !

(जयशंकर प्रसाद)

बीती विभावरी जाग री !
अम्बर पनधट में डुबो रही,
तारा घट उषा नागरी |                                                                             
खग कुलकुल सा बोल रहा,   
किसलय का अंचल डोल रहा, 
लो यह लतिका भी भर लाई,                                                                                             
मधु मुकुल नवल रस गागरी|                                                                                       
अधरों में राग अमंद पिये,
अलको में मलयज बंद किये,                                                                                                            
तू अब तक सोई है आली |
आँखों में भरे विहाग री ?
 
 





 

वर दे वीणावादिनी ---सूर्य कान्त त्रिपाठी “निराला”


वर दे वीणावादिनी


(सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला)

वर दे वीणावादिनी वर दे,


प्रिय स्वतंत्ररव,
अम्रत-मंत्र नव भारत में भर दे |
काट अंध उर के बंधनस्तर,
बहा जननि ज्योतिमर्य निर्झर,
कलुषभेदतम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे |
नव गति,नव लय,
ताल छंद नव,
नवल कंठ नव जलदमंद्र रव ,  
व नभ के नव विहग- वृन्द को
नव पर नव स्वर दे |
वर दे वीणावादिनी वर दे |