बीती विभावरी जाग री !
(जयशंकर प्रसाद)
बीती विभावरी जाग री !
अम्बर पनधट में डुबो रही,
तारा घट उषा नागरी |
खग कुल–कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई,
मधु मुकुल नवल रस गागरी|
अधरों में राग अमंद पिये,
अलको में मलयज बंद किये,
तू अब तक सोई है आली |
आँखों में भरे विहाग री ?
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