Saturday 14 April 2012

पथिक -सन्त वचन


पथिक      

सन्त वचन

 हे नाथ अब तो ऐसी दया हो,
जीवन निरर्थक जाने आ पाये.

 यह मन न जाने क्या क्या दिखाये,
कुछ बन न पाया मेरे बनाये.

 संसार में ही आसक्त रहकर,
दिन रात अपने मतलब की कहकर,

 सुख के लिये लाखोँ दुःख सहकर,
ये दिन अभी तक यों ही बिताये.

 ऐसा जगा दो फिर सो न जाऊँ,
अपने को निष्काम प्रेमी बनाऊँ.

 मै आप को चाहूँ और पाऊँ,
संसार का कुछ भय रह न जाये.

 वह योग्यता दो सत्कर्म कर लूँ,
अपने हृदय में सदभाव भरलूं,

 नरतन है साधन भवसिंधु तरलूं,
ऐसा समय फिर आये न आये .

 हे प्रभु हमें निरभिमानी बना दो ,
दरिद्र हरलो दानी बना दो ,

 आनन्दमय विज्ञानी बनादो ,
मै हूँ पथिक यह आशा लगाये.


Sunday 8 April 2012

उसे भी देख साथी --रामधारी सिंह ‘दिनकर’


उसे भी देख साथी

रामधारी सिंह दिनकर

उसे भी देख, जो भीतर भरा अंगार है साथी.

सियाही देखता है,देखता है तू अँधेरे को,
किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को,
उसे भेए देख ,जो तेरे बाहरी तम को बहा सकती,
दबी तेरे लहू मे रौशनी की धार है साथी.

पडी  थी नीव तेरी चाँद सूरज के उजाले पर,
तपस्या पर,लहू पर,आग पर ,तलवार-भालों पर,
डरे तू ना उम्मीदों से,कभी यह हो नहीं सकता,
कि तुझ में ज्योति का अक्षय भरा भंडार है साथी .

बवण्डर चीखता लौटा, फिरा तूफ़ान जता है ,
डराने के लिये तुझको नया  भूडोल आता है,
नया मैदान है राही, गरजना है नये बल से ,
उठा,इस बार वह जो आख़िरी हुँकार है साथी .

विनय की रागिनी में,बीन के ये तार बजते हैं,
रुदन बजता,सजग हो ,छोभ हाहाकार बजते हैं ,
बजा इस बार दीपक राग कोई आख़िरी बार सुर में,
छिपा इस बीन में ही आग वाला तार है साथी.

गरजते शेर आये ,सामने फिर भेडिये आये,
नखों को तेज,दातों को बहुत तीखा किये आये,
मगर परवाह क्या?हो जा खडा तू तानकर उसको,
छिपी जो हड्डियों में आग सी तलवार है साथी.

शिखर पर तू, न तेरी राह बाकी दाहिने बाएँ,
खड़ी आगे दरी यह मौत सी विकराल मॅुह बाये,
कदम पीछे हटाया  तो अभी ईमान जाता है,
उछल जा ,कूद जा, पल मे दरी यह पार है साथी.

न रुकना है तुझे, झन‌ड़ा उड़ा केवल पहाडो पर,
विजय पानी है तुझको चाँद ,सूरज पर, सितारों पर,
बधू रहती जहाँ नर वीर की तलवार वालों की ,
जमीं वह इस ज़रा से  आसमां के पार है  साथी.

भुजाओं पर,मही का भार फूलों सा उठाये जा,
कंपाये जा गगन को ,इन्दु का आसन हिलाये  जा ,
जहाँ में एक ही रौशनी ,वह नाम की तेरे,
जमी को एक तेरी आग का आधार है साथी.


बालिका से बधू --रामधारी सिंह ‘दिनकर’


बालिका से बधू

रामधारी सिंह दिनकर

माथे में सेंदुर पर छोटी दो बिंदी चमचम सी,
पपनी पर आँसू की बूंदें मोती सी,शबनम सी,
लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम सी,
यौवन की विनती-सी,भोली गुमसुम खड़ी शरम सी.

पीला चीर, कोर में जिसकी चकमक गोटा जाली,
चली पिया के गॅाव,उमर के सोलह फूलोंवाली,
पी चुपके आनन्द,उदासी भरे सजल चितवन में,
आँसू में भीगी माया चुपचाप खड़ी आँगन में .

आँखों में दे आँख हेरती है सब सखियां,
मुस्की आ जाती मुख पर,हँस देती रोती अंखियाँ,
पर समेट लेती शरमाकर बिखरी सी मुस्कान ,
मिट्टी उकसाने लगती है अपराधिनि समान .

भींग रहा मीठी उमंग से दिल का कोना कोना,
भीतर भीतर हँसी देख लो ,बाहर बाहर रोना ,
तू वह जो झुरमुट् पर आयी हँसती कनक कली सी
तू वह, जो फूटी शराब की निर्झरणी पतली सी.

तू वह,रचकर जिसे प्रकृति ने अपना किया सिंगार ,
तू वह जो घूसर में आयी सबुज रंग की धार,
माँ की ढीठ दुलार,पिता की ओ लजवंती भोली ,
ले जायेगी हिय की मणि को पिया की डोली .




Saturday 7 April 2012

गर्मी का मौसम


था गर्मी का मौसम जहाँ जोर  पर,
तो करनी पडी एक लम्बी सफर.
गया रेल पर तो नज़ारा वहाँ.
जो देखा तो तबियत भी सहमी वहाँ.

वो शिददत की गर्मी औ वो कशम कश,
वो गाड़ी में चढने को खिड़की पे रश .
इसे देख पस्त मेरी हिम्मत हुई,
ये सोचा कि बस आज गाड़ी गयी.

मगर एक इंटर में देखा तो एक,
चढा कोई साहिब का रचकर भेख.
बदन पर थी पालिश वो जापान की ,
औ पतलून गुदड़ी के बाजार की.

शक्ल और सूरत की कया बात थी,
उसे देख भैसे की माँ मात थी.
जो देखा कि चढता है एक आदमी ,
तो लंगूर घबराए,उल्टी जमी .

कुली से वो बोले कि ओ खबरड़ार,
शुअर क्या न जाने ये शाअब का कार .

कौन है कवि ज्ञात नहीं


Tuesday 3 April 2012

नर हो न निराश करो मन को --मैथिलीशरण गुप्त


नर हो न निराश करो मन को
-
मैथिलीशरण गुप्त

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।



मोको कहां ढूढे रे बन्दे--कबीर


मोको कहां ढूढे रे बन्दे
कबीर

मोको कहां ढूढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में
ना तीर्थ मे ना मूर्त में, ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे, मैं तो तेरे पास में

मैं जप में ना मैं तप में, ना मैं बरत उपास में
ना मैं किर्या कर्म में रहता, नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में, ना ब्रह्माण्ड आकाश में


मैं प्रकति प्रवार गुफा में,नहिं स्वांसों की स्वांस में
खोजि होए तुरत मिल जाउं,इक पल की तालाश में
कहत कबीर सुनो भई साधोमैं तो हूँ विश्वास में


चलना हमारा काम है--शिवमंगल सिंह 'सुमन'


चलना हमारा काम है

शिवमंगल सिंह 'सुमन'

गति प्रबल पैरों में भरी, फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ, तब तक मुझे न विराम है
चलना हमारा काम है ।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया, कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई, कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ, राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।

जीवन अपूर्ण लिए हुए, पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा, हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध, इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।

इस विशद विश्व-प्रहार में, किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह, किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।

मैं पूर्णता की खोज में, दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ, रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।

साथ में चलते रहे, कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी, जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम, उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।

फकत यह जानता, जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज, दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल, वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है ।