था गर्मी का मौसम जहाँ जोर पर,
तो करनी पडी एक लम्बी सफर.गया रेल पर तो नज़ारा वहाँ.
जो देखा तो तबियत भी सहमी वहाँ.
वो शिददत की गर्मी औ वो कशम कश,
वो गाड़ी में चढने को खिड़की पे रश .इसे देख पस्त मेरी हिम्मत हुई,
ये सोचा कि बस आज गाड़ी गयी.
मगर एक इंटर में देखा तो एक,
चढा कोई साहिब का रचकर भेख.बदन पर थी पालिश वो जापान की ,
औ पतलून गुदड़ी के बाजार की.
शक्ल और सूरत की कया बात थी,
उसे देख भैसे की माँ मात थी.जो देखा कि चढता है एक आदमी ,
तो लंगूर घबराए,उल्टी जमी .
कुली से वो बोले कि ‘ओ खबरड़ार’,
शुअर क्या न जाने ये शाअब का कार .
कौन है कवि ज्ञात नहीं
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