Thursday 29 March 2012

“अग्निपथ”--हरिवंश राय बच्चन

“अग्निपथ”

हरिवंश राय बच्चन

वृक्ष हो भले खड़े,
हो घने हो बड़े,
एक पत छाव की |
मांग मत, मांग मत, मांग मत ||
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ |||


तू न थकेगा कभी,
तू न थमेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी |
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ ||
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ |||


ये महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु स्वेद रक्त से |
लथपथ, लथपथ, लथपथ ||
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ |||

Saturday 24 March 2012

धोखा


धोखा

 
हम गयेन याक दिन लखनऊवै,
कक्कु संजोग अईस परिगा ,
पहिले पहिल हम सहरू दीख,
सो कहूँ कहूँ धोखा होइगा ׀

जब गएँन नुमाईस धाखै हम,
जहैं कक्कु भारी रहै भीर,
दुइ तोला चारि रुपइया कै ,
हम बीसहा सोने कै जनजीर ׀

लखि भई घरैतिन गलगल बहुल,
मुला चार दिनन माँ रंग बदला,
उन कहा कि पीतर लइ आयो ,
हम कहा बडा धोखा होइगा ׀

म्वाछन का कीन्हे सफाचट ,
मुहँ पावडर और सिर केस बड़े ,
तहमत पहिने अंडी ओढ़े,
बाबूजी याके रहे खड़े ׀

हम कहा मेंम साहेब सलाम ,
उई बोले चुप बे डैम फूल,
मै मेंम नही हूँ साहेब हूँ ,
हम कहा फिरउ धोखा होइगा ׀

हम गयेंन अमीनाबादै जब,
कुछ कपडा लेय बजामा मा ,
माटी कै सुधरि मेहरिया असि,
जहाँ खडी रहै दरवाजा मा ׀

समझा दुकान कै यह मलिकिन ,
सो भाव ताव पूछै लागेन,
यकै बोले यह मूरति है,
हम कहा बडा धोखा होइगा ׀

घुसी गयेन दुकानै दीख जहाँ ,
मेहरेरूआ याकै रही खड़ी,
मुहँ पावडर पोते उजर उजर,
औ पहिने साड़ी सुधर बड़ी ׀

हम जाना मूरति माटी कै ,
सो सारी पर जब हाथु धरा ,
उइ झझकि भकुरि खउखाय उठी,
हम कहा फिरउ धोखा होइगा ׀


आज बुद्धू भी कलक्टर हो गये --बनारसी बेढब


आज बुद्धू भी कलक्टर हो गये 


बनारसी बेढब 


साफ़ जब दो चार कंटर हो गये,
हम ने समझा हम  कलक्टर हो गये׀.

अब खुदा का भी नहीँ है डर उन्हें,
पीके एक चुक्कड़ बहादुर हो गये ׀

एक चिल्लू ने किया इतना रिफार्म ,
राह के कुत्ते बिरादर हो गये ׀

सारी दुनियाँ अब उन्हें घर हो गयी,
राह के कंकण भी बिस्तर हो गये ׀

चूम लेते हैं कभी कुत्ते भी मुहँ,
आपके आशिक तो टैरियर हो गये ׀

पीके बेहरकत पड़े हैं रोड पर,
आदमी से आप न्युटर हो गये ׀

त्याग सिखलाती है सबको शराब,
बेच कर सब कुछ कलंदर हो गये׀

जिस जगह चाहा वहीँ सोने लगे,
पिके विहस्की फुल स्लीपर हो गये׀

एक  चुक्कड़ ने दिखाया इतना असर,
शेख जी बिलकुल छछुनंदर हो गये׀

पीके जूठी लाट साहिब की शराब,
आनरेरी वह मजस्टर हो गये׀

क्या बताएँ कितना मजा विहस्की में है,
पीते पीते हम एडिटर हो गये׀

देखिये बेढब पिकेटिंग का असर ,
आदमी सरकार के सर हो गये׀



  

Thursday 22 March 2012

चिंता


चिंता / कामायनी भाग १

जयशंकर प्रसाद

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह ,
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह ׀

नीचे जल था, ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन |


दूर दूर तक विस्तृत था हिम,स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से, टकराता फिरता पवमान |

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का, होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे, देवदारू दो चार खड़े ,
हुए हिम-धवल जैसे पत्थर,  बनकर ठिठुरे रहे अड़े।
अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार ,
स्फीत शिरायें स्वस्थ रक्त का, होता था जिनमें संचार।

चिंता-कातर वदन हो रहा, पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का, बहता भीतर मधुमय स्रोत।
बँधी महावट से नौका थी, सूखे में अब पड़ी रही ,
उतर चला था वह जल-प्लावन, और निकलने लगी मही।

निकल रही थी मर्म वेदना, करूणा विकल कहानी सी ,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी सी।

"ओ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व-वन की व्याली
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, प्रथम कंप-सी मतवाली।

हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खलखेला ,
हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ जल-माया की चल-रेखा।
इस ग्रहकक्षा की हलचलरी, तरल गरल की लघु लहरी
जरा अमर-जीवन की, और न कुछ सुनने वाली बहरी।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी, अरी आधि मधुमय अभिशाप ,
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।

मनन करावेगी तू कितना, उस निश्चित जाति का जीव ,
अमर मरेगा क्या, तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।

आह घिरेगी हृदय-लहलहे, खेतों पर करका घन सी ,
छिपी रहेगी अंतरतम में, सब के तू निगूढ धन सी।

बुद्धि मनीषा मति आशा, चिंता तेरे हैं कितने नाम ,
अरी पाप है तू जा चल जा, यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

विस्मृति आ अवसाद घेर ले, नीरवते बस चुप कर दे ,
चेतनता चल जा जड़ता से, आज शून्य मेरा भर दे।

"चिंता करता हूँ मैं जितनी, उस अतीत की उस सुख की
उतनी ही अनंत में बनती जाती, रेखायें दुख की

आह सर्ग के अग्रदूत, तुम असफल हुए विलीन हुए ,
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए।
अरी आँधियों ओ बिजली की, दिवा-रात्रि तेरा नतर्न ,
उसी वासना की उपासना, वह तेरा प्रत्यावत्तर्न।
मणि-दीपों के अंधकारमय, अरे निराशा पूर्ण भविष्य ,
देव-दंभ के महामेध में, सब कुछ ही बन गया हविष्य।
अरे अमरता के चमकीले पुतलो , तेरे ये जयनाद ,
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि, बन कर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रही दुर्जेय पराजित, हम सब थे भूले मद में ,
भोले थे हाँ तिरते केवल सब, विलासिता के नद में।
वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार ,
उमड़ रहा था देव-सुखों पर, दुख-जलधि का नाद अपार।"

"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या, स्वप्न रहा या छलना थी,
देवसृष्टि की सुख-विभावरी, ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से , जीवन के मधुमय निश्वास ,
कोलाहल में मुखरित होता, देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख केवल सुख का वह संग्रह, केंद्रीभूत हुआ इतना ,
छायापथ में नव तुषार का, सघन मिलन होता जितना।


सब कुछ थे स्वायत्तविश्व के-बल, वैभव आनंद अपार ,
उद्वेलित लहरों-सा होता, उस समृद्धि का सुख संचार।

कीर्ति दीप्ती शोभा थी नचती, अरूण-किरण-सी चारों ओर ,
सप्तसिंधु के तरल कणों में, द्रुम-दल में आनन्द-विभोर।

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी, पद-तल में विनम्र विश्रांत ,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर, प्रतिदिन ही आक्रांत।

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से, कड़ी आपदाओं की वृष्टि।

गया सभी कुछ गयामधुर तम, सुर-बालाओं का श्रृंगार ,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित, मधुप-सदृश निश्चित विहार।

भरी वासना-सरिता का वह, कैसा था मदमत्त प्रवाह ,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका, देख हृदय था उठा कराह।"

"चिर-किशोर-वय नित्य विलासी, सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, मधु से पूर्ण अनंत वसंत?

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित, प्रेमालिंगन हुए विलीन ,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें, और न सुन पडती अब बीन।

अब न कपोलों पर छाया सी,पडती मुख की सुरभित भाप ,
भुज-मूलों में शिथिल वसन की, व्यस्त न होती है अब माप।

कंकण क्वणित रणित नूपुर थे, हिलते थे छाती पर हार ,
मुखरित था कलरवगीतों में, स्वर लय का होता अभिसार।

सौरभ से दिगंत पूरित था, अंतरिक्ष आलोक-अधीर ,
सब में एक अचेतन गति थी, जिसमें पिछड़ा रहे समीर।

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा, अंग-भंगियों का नत्तर्न ,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा , मदिर भाव से आवत्तर्न।














Monday 19 March 2012

पुष्प की अभिलाषा --माखन लाल चतुर्वेदी


पुष्प की अभिलाषा

माखन लाल चतुर्वेदी


चाह नहीं सुरबाला के गहनों में  गूँथा जा‌‌‍ऊँ,
चाह नहीं,प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ |

चाह नही,सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ, ‌‌‍
चाह नहीं,देवो के सिर पर चढूँ,भाग्य पर इठलाऊँ ||

मुझे तोड़ लेना वनमाली,उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढाने,जिस पर जावें वीर अनेक ||

जौहर --श्याम नारायण पाण्डेय


जौहर
श्याम नारायण पाण्डेय

थाल सजा कर किसे पूजने चले प्रात ही मतवाले,
कहाँ चले तुम राम नाम का पीताम्बर तन पर डाले .

इधर प्रयाग न गंगा सागर, इधर न रामेश्वर काशी,
इधर कहाँ है तीर्थ तुम्हारा कहाँ चले तुम सन्यासी .

चले झूमते मस्ती से, क्या तुम अपना पथ आये भूल,
कहाँ तुम्हारा दीप जलेगा,कहाँ चढेगा माला फूल .

मुझे न जाना गंगा सागर,मुझे न रामेश्वर काशी,
तीर्थ राज चित्तौड देखने को, मेरी आँखे प्यासी .

अपने अचल स्वतंत्र दुर्ग पर, सुनकर वैरी की बोली,
निकल पडी लेकर तलवारें, जहाँ जवानों की टोली .

जहाँ आन पर माँ बहनों ने जल जला पवन होली,
वीर मंडली गर्वित स्वर में जय माँ की जय जय बोली.

सुंदरियों ने जहाँ देश हित, जौहर व्रत करना सीखा,
स्वंतत्रता के लिए जहाँ पर, बच्चो ने भी मरना सीखा.

वहीँ जा रहा पूजा करने, लेने सतियो की पग घूल ,
वही हमारा दीप जलेगा, वहीं चढेगा माला फूल .

जहाँ पदमिनी जौहर व्रत करती, चढ़ी चिता की ज्बाला पर,
क्षण भर वही समाधी लगी बैठ इसी मृग छाला पर.




Friday 16 March 2012

झांसी की रानी की समाधी--सुभद्रा कुमारी चौहान


झांसी की रानी की  समाधी

सुभद्रा कुमारी चौहान

इस समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी |
जल कर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी ||
यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की |
अंतिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

यहीं कहीं पर बिखर गई वह, भग्न-विजय-माला-सी |
उसके फूल यहाँ संचित हैं, है यह स्मृति शाला-सी |
सहे वार पर वार अंत तक, लड़ी वीर बाला-सी |
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी |

बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से |
मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से ||
रानी से भी अधिक हमे अब, यह समाधि है प्यारी |
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिनगारी ||

इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते |
उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जंतु ही गाते ||
पर कवियों की अमर गिरा में, इसकी अमिट कहानी |
स्नेह और श्रद्धा से गाती, है वीरों की बानी ||

बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी |
खूब लड़ी मरदानी वह थी, झाँसी वाली रानी ||
यह समाधि यह चिर समाधि है , झाँसी की रानी की |
अंतिम लीला स्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||