शिवाजी
कहते जुबां थर्रा रही, बस हिन्दुओ का काल था.
उसने जहाँ मंदिर गिराये,की वहीं मस्जिद खडी,
हा! हिन्दुओं के हृदय में जब चोट यह गहरी पडी.
तब बहुत से हिन्दू मारने मरने लगे,
कुछ विकल हो प्रभू से प्राथना करने लगे.
सुन कर हिन्दुओ की यह व्यथा,
अवतार शंकर ने लिया, जिसका शिवाजी नाम था.
यह कविता किसकी है पता नहीँ. मेरे स्वर्गीय
पिताश्री ने सन १९४१-४२ में इस कविता को किसी पुस्तक में पढ़ा था जिसमे शिवाजी की
सम्पूर्ण गाथा थी. इस पुस्तक को बाद में निषेद कर दिया गया था..मैंने कई बार उनके
मुख से इस कविता को सुना था. हो सकता है इसमें कुछ अंश न हो? अगर किसी सज्जन को यह
कविता याद हो तो कृपया अवश्य लिखे और पुस्तक का नाम भी
.
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