Sunday 11 March 2012

जनतंत्र का जन्म -रामधारी सिंह दिनकर


जनतंत्र का जन्म 
रामधारी सिंह दिनकर

सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो कि जनता आती है |

जनता? हाँ,
मिट्टी की अबोघ मूरते वही, 
जाडे पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग अंग में लगे साँप ही चूस रहे,  
तब भी ,न कभी मुह खोल दर्द कहने वाली ,
लेकिन,होता भूडोल,बवंडर उठते हैं ,
जनता जब कोपाकुल हो भ्रीकुति चढाती है, 
दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो कि जनता आती है |

हुँकारो के महलों की नीव उखड जाती,
सांसो के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है,
सबसे वीराट जनतंत्र जगत का आ पंहूँचा ,
तैंतिस कोटि हित सिंहासन तैयार करो ,
अभिषेक आज राजा का नही,प्रजा  का है,
तैंतिस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो |

आरती लिए किसे तू ढूढता मूरख,
मंदिरों ,राजप्रसादों ,तहखानो में ,
देवता कहीं सड़को पर मिट्टी तोड़ रहे हैं ,
देवता मिलेंगें खेतों में खलिहानो में ,
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
घुसरता सोने से श्रृंगार सजाती है,
दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो कि जनता आती है |


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