Friday 9 March 2012


            शिवाजी

  







दस वर्ष से अवस्था अधिक जब होने लगी,
वीरतव के बीज माता ह्रदय में बोने लगी.
कहने लगी बेटा शिवाजी तब तुम्हारा नाम है,
निज मात्रि भूमी पवित्र करदो जो तुम्हारा काम है.
जिस मात्रि भूमी पर पतित पावन राम का साम्राज्य था,
थी प्रजा सभी तरह सुखी ,सब आनन्द का ही राज था, 
उस मात्रि भू पर आज हुआ यवनों का  अधिकार है,
गर विजय इन्हें तूने न किया तो धिक्कार है.
इस भांति माता पुत्र को सिखाती थी जहाँ,
दरबार से उसके पिता श्री शाहजी आये वहाँ.
कहने लगे,क्या पुत्र को तू राजद्रोह सिखा रही?
उत्तर दिया अर्धांगनी ने, नाथ वीर बना रही.
अनबन हुई पत्नी व पति के बीच ज़रा सी बात पर,
वह राज भक्त बने थे पिता इस घात में .
बस अगले दिन पुत्र की अंगुली पकड़ कर हाथ में,
निज दरबार बीजापुर ले गए वह साथ में.
वह मुसल्मानिक दरबार था, और नाचती थी अप्सरा.
दरबार मुसलमानों से था खचाखच भरा,
शाहजी ने नबाब को झुक कर सलाम किया वहाँ,
उस समय उस वीर बालक ने दिखाई अति घृणा वहाँ .  
कहने लगा वह वीर बालक क्यों पिता यह क्या किया?
सलाम कर मलेकक्ष को क्या छत्रिय धर्म भुला दिया?
कहने लगे पिता तुम भी सलाम करो यहाँ,
उस समय उस वीर बालक ने दिया उत्तर वहाँ,
हम यवनों को कदापि न सलाम  कर सकते यहाँ,
यह मुसल्मानिक  दरबार है ,लेकिन न डर सकते यहाँ.
त्योरी बदल कर चल दिया ,स्न्नान घर पर आ किये.
पहने थे जो वस्त्र ,उत्तार कर नवींन  और पहन लिए. 
दरबार से उनके पिता श्री शाहजी  भी आ गए,
पुत्र को देख अधिक गम खा गए.
दूसरे दिन पुत्र और पत्नी को भेजा वहाँ ,
दादा करणजी देव उनके मित्र रहते थे जहाँ .
लिखी दरबार बीजापुर की सारी कथा,
लिखा यह अज्ञान बालक ज्ञान दो तुम सर्वथा.
दादा करणजी देव ने पढ़ कर कथा,
कहने लगे ,सलाम न किया तो ठीक ही है सर्वथा,
यदि तुम्हारे पिता अप्रसन्न तुमसे हो गए,
भेजा हमारे पास, सीखो काम और  नये नये,
तलवार चलाना और शास्त्र विधया भी सिखायेगे तुम्हे,
भारतीय सच्चा सिपाही हम बनाएंगे तुम्हे.
यह कविता किसकी है पता नहीँ. मेरे स्वर्गीय पिताश्री ने सन १९४१-४२ में इस कविता को किसी पुस्तक में पढ़ा था जिसमे शिवाजी की सम्पूर्ण गाथा थी. इस पुस्तक को बाद में निषेद कर दिया गया था..मैंने कई बार उनके मुख से इस कविता को सुना था. हो सकता है इसमें कुछ अंश न हो? अगर किसी सज्जन को यह कविता याद हो तो कृपया अवश्य लिखे और पुस्तक का नाम भी

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