Wednesday 7 March 2012

एक बूंद -अयोध्या सिंह ‘ हरिऔध’

                

   एक बूंद 


अयोध्या सिंह हरिऔध

यो निकल कर बादलों की गोद से,
‍थी अभी एक बूंद आगे बढी,
सोचते फिर फिर यही जी में लगी,
आह क्यों मै घर छोडकर,क्यों चली .

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मै बचूँगी या मिलूँगी धूल में,
या जलूँगी गिर अंगारों पर किसी,
चू पडूँगी या कमाल के फूल में.

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा,
बह समुन्दर और आई अनमनी,
एक सुन्दर सीप का था मु:ह खुला,
वह उसी में जा पडी मोती बनी.


लोग यों ही हैं झिझकते सोचते ,
जब कि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें,
बूंद लौ कुछ और ही देता है कर.   






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