कौन पंहुचा देगा उस पार
महादेवी वर्मा
वेग मारुत का है प्रतिकूल,हिले जाते हैं पर्वत मूल ,
गरजता सागर बारम्बार,कौन पहुँगा देगा उस पार |
तरंगें उठी पर्वताकार,भयंकर करती हाहाकार,
अरे उनके फेनिल उच्छवास,तरी का करते उपहास,
हाथ से गयी छूट पतवार, कौन पंहुचा देगा उस पार |
ग्रास करने नौका,स्वछंद घूमते
जलचर वृन्द,
देख कर काला सिंधु
अन्नंत,हो गया साहस का अन्त,तरंगें हैं उत्ताल अपार, कौन पंहुचा देगा उस पार |
बुझ गया वह नक्षत्र प्रकाश,चमकती जिसमे मेरी आस,
रैन बोली सज कृषण दुकूल,विसर्जन करेंगे मनोरथ फूल ,
न लाये कोई कर्णाधार, कौन पंहुचा देगा उस पार |
सुना था मेरे इसके पार,बसा है सोने का संसार,
जहाँ के हँसते विहग ललाम,मृत्यु छाया का सुन कर नाम,
धरा का है अन्नंत
श्रिंगार, कौन पंहुचा देगा उस पार |जहाँ के निर्झर नीरव गान,सुना करते अमरत्व प्रदान,
सुनाता नभ अन्नंत झंकार,बजा देता उर के सब तार,
भरा जिसमे असीम सा प्यार, कौन पंहुचा देगा उस पार |
पुष्प में है अन्नंत मुस्कान,त्याग का है मारुत गान,
सभी में है स्वर्गीय विकास,वही कोमल कमनीय प्रकाश ,
दूर कितना है वह संसार , कौन पंहुचा देगा उस पार |
सुनाई किसने पल में आन, कान में मधुमय मोहक तान,
तरी को ले जाओ मझदार,डूब कर हो जाओगे पार,
विसर्जन ही है कर्णाधार, कौन पंहुचा देगा उस पार |
No comments:
Post a Comment