Thursday 22 March 2012

चिंता


चिंता / कामायनी भाग १

जयशंकर प्रसाद

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह ,
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह ׀

नीचे जल था, ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन |


दूर दूर तक विस्तृत था हिम,स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से, टकराता फिरता पवमान |

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का, होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे, देवदारू दो चार खड़े ,
हुए हिम-धवल जैसे पत्थर,  बनकर ठिठुरे रहे अड़े।
अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार ,
स्फीत शिरायें स्वस्थ रक्त का, होता था जिनमें संचार।

चिंता-कातर वदन हो रहा, पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का, बहता भीतर मधुमय स्रोत।
बँधी महावट से नौका थी, सूखे में अब पड़ी रही ,
उतर चला था वह जल-प्लावन, और निकलने लगी मही।

निकल रही थी मर्म वेदना, करूणा विकल कहानी सी ,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी सी।

"ओ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व-वन की व्याली
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, प्रथम कंप-सी मतवाली।

हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खलखेला ,
हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ जल-माया की चल-रेखा।
इस ग्रहकक्षा की हलचलरी, तरल गरल की लघु लहरी
जरा अमर-जीवन की, और न कुछ सुनने वाली बहरी।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी, अरी आधि मधुमय अभिशाप ,
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।

मनन करावेगी तू कितना, उस निश्चित जाति का जीव ,
अमर मरेगा क्या, तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।

आह घिरेगी हृदय-लहलहे, खेतों पर करका घन सी ,
छिपी रहेगी अंतरतम में, सब के तू निगूढ धन सी।

बुद्धि मनीषा मति आशा, चिंता तेरे हैं कितने नाम ,
अरी पाप है तू जा चल जा, यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

विस्मृति आ अवसाद घेर ले, नीरवते बस चुप कर दे ,
चेतनता चल जा जड़ता से, आज शून्य मेरा भर दे।

"चिंता करता हूँ मैं जितनी, उस अतीत की उस सुख की
उतनी ही अनंत में बनती जाती, रेखायें दुख की

आह सर्ग के अग्रदूत, तुम असफल हुए विलीन हुए ,
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए।
अरी आँधियों ओ बिजली की, दिवा-रात्रि तेरा नतर्न ,
उसी वासना की उपासना, वह तेरा प्रत्यावत्तर्न।
मणि-दीपों के अंधकारमय, अरे निराशा पूर्ण भविष्य ,
देव-दंभ के महामेध में, सब कुछ ही बन गया हविष्य।
अरे अमरता के चमकीले पुतलो , तेरे ये जयनाद ,
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि, बन कर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रही दुर्जेय पराजित, हम सब थे भूले मद में ,
भोले थे हाँ तिरते केवल सब, विलासिता के नद में।
वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार ,
उमड़ रहा था देव-सुखों पर, दुख-जलधि का नाद अपार।"

"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या, स्वप्न रहा या छलना थी,
देवसृष्टि की सुख-विभावरी, ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से , जीवन के मधुमय निश्वास ,
कोलाहल में मुखरित होता, देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख केवल सुख का वह संग्रह, केंद्रीभूत हुआ इतना ,
छायापथ में नव तुषार का, सघन मिलन होता जितना।


सब कुछ थे स्वायत्तविश्व के-बल, वैभव आनंद अपार ,
उद्वेलित लहरों-सा होता, उस समृद्धि का सुख संचार।

कीर्ति दीप्ती शोभा थी नचती, अरूण-किरण-सी चारों ओर ,
सप्तसिंधु के तरल कणों में, द्रुम-दल में आनन्द-विभोर।

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी, पद-तल में विनम्र विश्रांत ,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर, प्रतिदिन ही आक्रांत।

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से, कड़ी आपदाओं की वृष्टि।

गया सभी कुछ गयामधुर तम, सुर-बालाओं का श्रृंगार ,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित, मधुप-सदृश निश्चित विहार।

भरी वासना-सरिता का वह, कैसा था मदमत्त प्रवाह ,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका, देख हृदय था उठा कराह।"

"चिर-किशोर-वय नित्य विलासी, सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, मधु से पूर्ण अनंत वसंत?

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित, प्रेमालिंगन हुए विलीन ,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें, और न सुन पडती अब बीन।

अब न कपोलों पर छाया सी,पडती मुख की सुरभित भाप ,
भुज-मूलों में शिथिल वसन की, व्यस्त न होती है अब माप।

कंकण क्वणित रणित नूपुर थे, हिलते थे छाती पर हार ,
मुखरित था कलरवगीतों में, स्वर लय का होता अभिसार।

सौरभ से दिगंत पूरित था, अंतरिक्ष आलोक-अधीर ,
सब में एक अचेतन गति थी, जिसमें पिछड़ा रहे समीर।

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा, अंग-भंगियों का नत्तर्न ,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा , मदिर भाव से आवत्तर्न।














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